रात भर दीद-ए नम्नाक में लहराते रहे
साँस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे ।
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जो छू लेता मैं उसको, वो नहा जाता पसीने में ।
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ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे ।
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क्या मैं इस रज़्म का ख़ामूश तमाशाई बनूँ
क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ ।
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हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो-
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो ।
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ये जंग है जंग-ए आज़ादी ।
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इक नई दुनिया, नया आदम बनाया जाएगा ।
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सुर्ख़ परचम और ऊँचा हो, बग़ावत ज़िन्दाबाद ।
ये था “सुर्ख़ सवेरा” का रंग, “गुल-ए-तर” में ये रंग मिलेगा :
हुजूम-ए- बादाँ ओ गुल में हुजूम-ए-याराँ में
किसी निगाह ने झुक कर मेरे सलाम लिए ।
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तोफ़-ए बर्ग-ए गुल व बाद-ए बहाराँ लेकर
क़ाफ़िले इश्क़ के निकले हैं बयाबानों से ।
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कमान-ए अबरू-ए खूबाँ का बाँकपन है ग़ज़ल
तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीदे-यार करें ।
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आज तो तल्ख़ी-ए-दौराँ भी बहुत हल्की है
घोल दो हिज्र की रातों को भी पयमानों में ।
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हर शाम सजाए हैं तमन्ना के नशेमन
हर सुबह मये तल्ख़ी-ए-अय्याम भी पी है ।
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ग़मज़दो तीशे को चमकाओ के कुछ रात कटे ।
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उठो के फ़ुर्सते दीवानगी ग़नीमत है ।
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इलाही ये बिसाते-ए-रक़्स और भी बसीत हो
सदाए तीशा कामराँ हों, कोहकन की जीत हो ।
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हमदमो हाथ में हाथ दो
सुए मंज़िल चलो
मंज़िलें प्यार की
मंज़िलें दार की
कुए दिलदार की मंज़िलें
दोश पर अपनी-अपनी सलीबें उठाए चलो ।