बेदार हुईं मेहर-ए-जवानी की शुआएँ
पड़ने लगीं आलम की उसी सिम्त निगाहें ।
ख़ाबीदा थे जज़बात बदलने लगे करवट
रु-ए शरर-ए तूर से हटने लगा घूँघट ।
भरने लगे बाजू तो हुए बन्द-ए क़बा तंग
चढ़ने लगा तिफली पे जवानी का नया रंग ।
साग़र की ख़नक बन गई उस शोख़ की आवाज़
बरबत  को हुई गुदगुदी या जाग उठे साज़ ।
आज़ा में लचक है तो इक लोच कमर में
आसाब  में पारा है तो बिजली है नज़र में ।
आने लगी हर बात पे रुक-रुक के हँसी अब
रंगीन तमउज के गिराँबार हुए लब ।
वो देख बदलते हुए पहलू कोई उट्ठा
वो देख बिगाड़े हुए गेसू कोई उट्ठा ।
वो देख के किस गुल की महक फैली है हर सूँ
वो देख के कौन रवाँ  बजते हैं घूँघरू ।
कम्बख़्त अजल थी ये जवानी की क़बा में
टुकड़े हैं किसी दिल के भी नक़्शे कफ़े पा में ।

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