जो दीन-हीन, पीड़ित, निर्बल,
मैं हूँ उनका जीवन संबल!
जो मोह-छिन्न, जग से विभक्त,
वे मुझ में मिलें, बनें सशक्त!
जो अहंपूर्ण, वे अन्ध-कूप,
जो नम्र, उठे बन कीर्ति-स्तूप!
जो छिन्न-भिन्न, जल-कण असार,
जो मिले, बने सागर अपार,
जग नाम-रूपमय अन्धकार,
मैं चिर-प्रकाश, मैं मुक्ति-द्वार!
रचनाकाल: मई’१९३५