ए मिट्टी के ढेले
ऐ मिट्टी के ढेले अनजान!
तू जड़ अथवा चेतना-प्राण?
क्या जड़ता-चेतनता समान,
निर्गुण, निसंग, निस्पृह, वितान?
कितने तृण, पौधे, मुकुल, सुमन,
संसृति के रूप-रंग मोहन,
ढीले कर तेरे जड़ बन्धन
आए औ’ गए! (यही क्या मन?)
अब हुआ स्वप्न मधु का जीवन,
विस्मृत-स्मृति के विमुक्त बन्धन!
खुल गया शून्यमय अवगुंठन
अज्ञेय सत्य तू जड़-चेतन!
रचनाकाल: जून’१९३५