बढ़ गया बादा-ए-गुलगूँ का मज़ा आख़िरे शब
और भी सुर्ख़ है रुख़सारे हया आख़िरे शब ।
मंज़िलें इश्क़ की आसाँ हुईं चलते-चलते
और चमका तेरा नक़्शे क़फ़े पा आख़िरे शब ।
खटखटा जाता है ज़ंजीरे दरे मयख़ाना
कोई दिवाना कोई आबला पा आख़िरे शब ।
साँस रुकती है छलकते हुए पैमानों की
कोई लेता था तेरा नामे वफ़ा आख़िरे शब ।
गुल है क़न्दीले हरम, गुल है कलीसा के चिराग़
सुए पैमाना बढ़े दस्ते दुआ आख़िरे शब ।
हाय किस धूम से निकला है शहीदों का जुलूस
जुर्म चुप सर-ब-गरेबाँ है जफ़ा आख़िरे शब ।
उसी अन्दाज़ से फिर सुबह का आँचल ढलके
इसी अंदाज़ से चल बादे सबा आख़िरे शब ।