हज़ार रंग मिले, इक सुबू की गरदिश में
हज़ार पैरहन आए गए ज़माने में
मगर वो संदल-ओ-गुल का गुबार, मुश्ते बहार
हुआ है वादिए जन्नत निशाँ में आवारा
अज़ल के हाथ से छूटा हुआ हयात का तीर
वो शश जेहत का असीर
निकल गया है बहुत दूर जुस्तजू बनकर ।
हज़ार रंग मिले, इक सुबू की गरदिश में
हज़ार पैरहन आए गए ज़माने में
मगर वो संदल-ओ-गुल का गुबार, मुश्ते बहार
हुआ है वादिए जन्नत निशाँ में आवारा
अज़ल के हाथ से छूटा हुआ हयात का तीर
वो शश जेहत का असीर
निकल गया है बहुत दूर जुस्तजू बनकर ।