दीवानगीए-दिल की तो अब हद नहीं कहीं
वो असतां कहीं है झुकी है जबीं कहीं
राहे-वफ़ा में ख़ाक के ज़र्रों पे है नज़र
शायद पड़ा हुआ हो मिरा दिल यहीं कहीं
इतनी कहां मजाल कि बे-पर्दा देखते
तेरे निशान हम को मिले हैं कहीं कहीं
आये हैं अश्क़-बार तिरी रह-गुज़ार से
हम दिल को छोड़ आये हैं शायद वहीं कहीं
जाती है कूए-यार में तू रोज़ ऐ सबा
इक पाए माले-ग़म को भी ले चल वहीं कहीं
यूँ तो है हर हसीन को नाज़ अपने हुस्न पर
देखा नहीं है दहर में तुझ सा हसीं कहीं
ऐ शैख़ मयकदे की मज़म्मत फ़ुज़ूल है
मिलती है क्या बिहिश्त में ऐसी ज़मीं कहीं
दिल की तलाश क्यों है ‘रतन’ उन की बज़्म में
देखोगे ध्यान से तो वो होगा यहीं कहीं।