कभी उल्फ़त का किस्सा खोल कर कहना ही पड़ता है
बड़ा मुश्किल है गो कहना मगर कहना ही पड़ता है

रसाई का जुनूँ हो, बेकसी हो, ना-तुवानी हो
तो ख़िज्र-ए-बेवफ़ा को मोतबर कहना ही पड़ता है

कलेजे का कलेजा जब उमड़ आता है आंखों में
तो हर इक अश्क़ को लख्ते-जिगर कहना ही पड़ता है

गदाई एक शाही है महब्बत की सियासत में
यहां बेताज को भी ताजवर कहना ही पड़ता है

वो सूरत जब नज़र आये मिरी सूरत के परदे में
तो इस को ऐ ‘रतन’ हुस्ने-नज़र कहना ही पड़ता है।

By shayar

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