घटा आ गयी झूम कर आसमां पर
बरसने लगा शैख़ पीरे-मुगां पर

क़फ़स के लिए मैंने क्या न छोड़ा
फ़ज़ाए-चमन, शाखे-गुल, आशियाँ, पर

कभी तू ने सोचा भी है ओ जफ़ा-जू
गुज़रती है क्या कुछ दिले-नातुवां पर

कहूंगा बहर कैफ़ कहने की बातें
नहीं गो मुझे ख़ास क़ुदरत ज़बां पर

ये है मुख़्तसर हस्तीए-दिल का किस्सा
इसे बुलबुला कहिये आबे-रवां पर

तिरे ही उठाने से अब उठ सकेगी
जबीं हम ने रख दी तिरे आस्तां पर

मुक़द्दर ने मुझ को यहां तक रुलाया
ज़माना है गिरियां मिरी दास्तां पर।

By shayar

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