बक़ा का लुत्फ भी तो मौत की मंज़िल से उठता है
तहे-दरया जो डूबा था वो फिर साहिल से उठता है

उधर ज़ब्ते-फुगां के इम्तिहां का वक़्त आ पहुंचा
इधर हर नाला शोरे-हश्र बन कर दिल से उठता है

बढ़े जाते हैं हम शायद नयाज़-ओ-नाज़ की हद से
अनल-महदूद का नारा हमारे दिल से उठता है

क़दम रखता है जो इस में सलामत रह नहीं सकता
क़ियामत ख़ेज़ फ़ित्ना कूचए-क़ातिल से उठता है

नुमूदे-इश्क़ का मंज़र है परवाने का जल जाना
‘रतन’ इस तौर कब कोई भरी महफ़िल से उठता है।

By shayar

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