अब दिल ग़मे-हयात की मंज़िल नहीं रहा
ये जुज़्व द्रसे-इश्क़ में शामिल नहीं रहा
ज़ाहिद मुझे बिहिश्त की राहत से क्या गरज़
जिस दिल में आरज़ू थी वही दिल नहीं रहा
तुम को है एहतिराज़ अगर इल्तिफ़ात से
मरना हमें भी इश्क़ में मुश्किल नहीं रहा
शमए-ख़ामोश किस से कहे दास्तानें-ग़म
परवाना वजहे-गरमिए-महफ़िल नहीं रहा
अब मुस्कुरा के फिर है कोई महवे-इल्तिफ़ात
जब क़ाबिले-निगाह मिरा दिल नहीं रहा
हर मौज है मिरे लिए साहिल ब-कफ़ ‘रतन’
मैं ग़र्क़ हो के तालिबे-साहिल नहीं रहा।