है वक़्के-अलम हस्तीए-फ़ानी मेरी
इक नालए-पुर ग़म है जवानी मेरी
हर लफ्ज़ पे इस हश्र बना बात है
क्या ख़ाक़ सुने कोई कहानी मेरी।
अफ़सानए-रंग-सर-गिरानी हूँ मैं
आलाम-ओ-मुसाइब की निशानी हूँ मैं
सुनते हैं जिगर थाम के सुनने वाले
जो महशरे-ग़म है वो कहानी हूँ मैं।
इतना न सता ऐ शबे-फ़र्क़त मुझ को
मिलने भी दे आलाम से फ़ुर्सत मुझ को
इतना भी ग़नीमत है अभी जीता हूँ
पायेगी सहर तक न सलामत मुझ को।
गुमनाम हूँ पाबंदे-कनाअत मुझको
नाक़दरीए-आलम की हक़ीक़त हूँ मैं
जीने का यही एक सहारा हूँ मैं
जीने का यही एक सहारा है ‘रतन’
एहबाब का मर्कजे-महब्बत हूँ मैं।