रूप-तारा तुम पूर्ण प्रकाम
रूप-तारा तुम पूर्ण प्रकाम; मृगेक्षिणि! सार्थक नाम। एक लावण्य-लोक छबिमान, नव्य-नक्षत्र समान, उदित हो दृग-पथ…
Read Moreरूप-तारा तुम पूर्ण प्रकाम; मृगेक्षिणि! सार्थक नाम। एक लावण्य-लोक छबिमान, नव्य-नक्षत्र समान, उदित हो दृग-पथ…
Read Moreकलरव किसको नहीं सुहाता? कौन नहीं इसको अपनाता? यह शैशव का सरल हास है, सहसा…
Read Moreआज नव-मधु की प्रात झलकती नभ-पलकों में प्राण! मुग्ध-यौवन के स्वप्न समान,– झलकती, मेरी जीवन-स्वप्न!…
Read Moreनवल मेरे जीवन की डाल बन गई प्रेम-विहग का वास! आज मधुवन की उन्मद वात…
Read Moreआज रहने दो यह गृह-काज, प्राण! रहने दो यह गृह-काज! आज जाने कैसी वातास छोड़ती…
Read Moreतुम्हारी आँखों का आकाश, सरल आँखों का नीलाकाश- खो गया मेरा खग अनजान, मृगेक्षिणि! इनमें…
Read Moreनील-कमल-सी हैं वे आँख! डूबे जिनके मधु में पाँख— मधु में मन-मधुकर के पाँख! नील-जलज-सी…
Read Moreमुसकुरा दी थी क्या तुम, प्राण! मुसकुरा दी थी आज विहान? आज गृह-वन-उपवन के पास…
Read Moreकब से विलोकती तुमको ऊषा आ वातायन से? सन्ध्या उदास फिर जाती सूने-गृह के आँगन…
Read Moreभावी पत्नी के प्रति प्रिये, प्राणों की प्राण! न जाने किस गृह में अनजान छिपी…
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